Merikalamse

सांसें भी बिक रही हैं

शोर है, चीख है, रुदन है और क्रदन भी है।

नैन नीर से भरे, स्वर भी भय कंपन है। 

चहुँ दिशा में हाहाकार, मृत्यु भी तांडव कर रही।

यह कैसा काल आ गया कि सांसे भी बिक रही।

जिंदगी और मौत दोनों साथ साथ चल रहे। 

आदमी से खेल कर, आदमी को छल रहे। 

दूरियां दवा बनी, नजदीकियों से डर लगे। 

संघर्ष फासलों का है, स्पर्श से भी डर लगे। 

जिंदगी तड़प रही सांसो के इंतजार में। 

सांसे नीलाम हो रही स्वार्थी बाजार में। 

तन भी भ्रष्ट हो गया हैं, मन भी भ्रष्ट हो गया हैं। 

ईमान अपना बेचकर, इंसान भ्रष्ट हो गया हैं । 

इंसान तो जीवित है पर, इंसानियत मर गयी है।

“शिल्पी” कहे हैरत है अब, आत्मा भी भ्रष्ट हो गयी है।

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top