Merikalamse

जीवन की नव प्रभात

JIWAN KI NAV PRABHAT

बंद पलकों की जागी आंखों से,
मैं जाती नींद को बुला रही थी।
करवट बदलकर व्यतीत होती रात में,
मैं सोने का हर संभव प्रयास कर रही थी।
तभी खिड़की से आता है शीतल पवन का झोंका,
मेरे व्याकुल हृदय में यूं दस्तक कर गया।
मानों कह गया तुझे अभी सोना नहीं है,
अपने वेग से खिड़की का पर्दा वो सरका गया।
मुझे जगाने वाली शीतल पवन के सम्मुख जाकर,
ज्यौं ही खिड़की पर से में चांद को देखने लगी।
चांदनी के स्पर्श करते हैं तन को मेरे,
मैं मंद – मंद अधरों पर मुस्कुराने लगी।
हृदय विचलित और होठों पर मंद मुस्कान,
उस एक पल में, मैं दो किरदार निभाने लगी।
नैनो से निहारती चांद को और अंतर्चक्षुओं से,
 मैं खुद की भीतर की व्याकुलता को ढूंढने लगी।
तभी आहट हुई कुछ ऐसी की मानो समकक्ष ही कोई,
मेरा नाम लेकर धीमी स्वर से मुझे पुकार रहा है।
मुड़ के देखा तो कुछ उलझा सा अक्स मेरा,
मेरी तरफ आता मुझे अपना परिचय दे रहा है।
यू आश्चर्य ना कर मुझे देख, मैं तू ही हूं,
तेरी वह उलझन हूं जो तेरे भीतर हरदम उलझी सी रहती हूं।
आज ही रूबरू होकर सुलझा ले मुझे,
या उलझ कर उलझी सी जिंदगी जी ले यही कहती हूं।
एक बार तो ठगी सी रह गई मैं उसका यह विकल्प सुन,
फिर कहा तो उलझन है क्योंकि मैंने अब तक तुझे सुलझाया नहीं है।
तुझसे रूबरू हुई तो अवश्य समझा लूंगी तुझे,
तू क्षणिक हैं, यूं विस्तार न कर मैंने अब तक तुझे अपनाया नहीं।
अहंकार-
क्षण मात्र में ही उस प्रतिबिंब ने रूप अपना बदल लिया,
एक अशोभनीय, कठोर, कर्कश स्वर छाया ने आंख मिला अपना परिचय दिया।
बोला मैं अहंकार हूं किसी के आगे ना मैंने नतमस्तक किया,
मैं तेरे भीतर भी अंश मात्र हूं तेरी जिह्वा पर कई बार मैंने आधिपत्य किया।
मैंने कहा सुना होता ये तेरा कर्कश स्वर जो पहले कभी,
अहंकार धारण कर अपनी अशोभनीय प्रतिच्छाया जो देखी होती कभी।
इस घृणित छवि को स्वप्न में भी मैं धारण करती न कभी,
अंश मात्र भी यदि तू मुझ में है तो मैं तेरा त्याग करती हूं अभी।

ईर्ष्या/ क्रोध

अहंकार के जाते ही तीव्र गति से मेरे सम्मुख खड़ी हुई

उसे देख स्वतः ही मेरी प्रतिच्छाया क्रोधाग्नि से भड़कने लगी।

कहने लगी मैं ईर्ष्या हूं सदा क्रोध साथ में लाती हूं,

ज्यौं देख दूसरे को ईर्ष्या हुई, काया क्रोध में जलने लगी।

यह देखकर मैं समझ गई ईर्ष्या क्रोध की सारथी है,

मैंने तत्काल हृदय किवाड़ बंद करें ईर्ष्या प्रवेश निषेध किया।

आंखें मूंद प्रभु ध्यान कर हृदय में इस छवि अंकित कर ली और,

मनोबल रूपी प्रत्यंचा पर स्नेह बात चढ़ा ईर्ष्या का वध किया।

लोभ, लालच, माया

क्रोध पश्चात अति प्रकाशमान प्रतिबिंब आकर जो मेरे सामने ठहरा,

मैं पूर्ण नेत्र खोल ना सकी और दृष्टि को भी मेरी क्षीण किया।

बोली मैं लोभ, माया, लालसा हूं, मैं सबके भीतर विरचती हूं,

मेरे तेज की चकाचौंध ने तू जैसे कितनों को ही पथहीन किया।

भला हो तेरे तेज प्रकाश का जो मेरे नेत्र पू्र्ण खुले नहीं,

तेरी आकर्षित चकाचौंध के, मेरे निस्वार्थ नैनो ने दर्शन किए नहीं।

तू अपनी राह पर अभी लौट जा मैं बंद नैनो से निवेदन करती हूं,

वो वस्तु प्राप्ति का पथ क्यों पूछूं, जो अपने स्वप्न में तक मैंने आने दिए नहीं।

आंसू

पलक झपकते ही जब लोभ लालसा का भाव कहीं खो सा गया,

एक अश्क मेरे अक्स का प्रतिबिंब बन कर आ गया,

मैं अश्रु हूं अक्सर सुख दुख में तेरे नैनों से बह जाता हूं,

यह कहकर वह अश्रु मुझ से अपना रिश्ता बतला गया।

तुम लोग अभिव्यक्ति है मेरे हर सुख – दुख की यह मुझे पता है,

आ मेरे नैनों में बस जा तू स्वप्नपूरित इन नैनों की ज्योति।

एकमात्र तू ही तो है हृदय स्थिति शब्द भावों की भाषा,

जो सर्वप्रथम नैनों से बह कर करती अनकही भावाभियक्ति।

आशा की किरण

तभी कहीं से मखमली मयूख सी आकर मेरी छाया पर चमकी,

बोली मैं हूं आश की किरण में मंद गति से चलती हूं।

मैं हर हृदय में अदृश्य विद्यमान हूं,

धैर्य, विश्वास का आधार मिले तो मैं पल-पल तत्पर रहती हूं।

संबोधित कर अंतर्मन से मैंने एक आस को अंगीकार किया,

तुझ बिन पराजय निश्चित है यह सच मैंने स्वीकार किया।

धीरता, विश्वास के साथ मैं तुझको हृदय में विराजमान करूं,

अंधकार में अशांत हृदय में मैंने आस का दीप स्थापित किया।

मन की चंचलता/ भ्रम

जैसे ही वह आस खुशी से मेरे हृदय में समा गई,

हलचल करती प्रतिच्छाया में चंचलता यूं सम्मुख आ गई ‌।

कहने लगी मैं भ्रम, मन की चंचलता तुझे ना स्थिर रहने दूंगी।

तुझे सद्गुणों के चयन में आज भी मैं भ्रमित करने आ गई।

मैंने कहा संभव नहीं अब क्षणिक तो समय अवधि है तेरी,

तू स्वयं चंचल है क्षण भर से अधिक तू टिक सकती नहीं।

कुछ पल पूर्व धैर्य को धारण कर लिया है मैंने,

तू अब पल भर भी मुझे भ्रमित कर सकती नहीं।

संतृप्ति

चंचलता के विलुप्त होते ही धीर गंभीर अद्भुत छवि परिचय देने लगी,

कहने लगी मैं संतृप्ति हूं लोभ हीन हृदय में रहती हूं।

मैं अदृश्य राह हूं मानव जीवन के सुख-दुख की,

मैं सुख, शांति, समृद्धि का नित आह्वान करती हूं।

संतोष वह परम धन है जो धन वैभव से कभी नहीं आता हैं,

मेरा हृदय आसन स्वीकार करो जो स्वागत को अधीर हुआ जाता है।

संतृप्ति के हृदय आसन ग्रहण करते ही पलभर मैं मानो,

 शीतल जल का निश्चल झरना अंतर्मन में निरंतर बहता जाता है।

खुशी

संतृप्ति के हृदय में विराजते ही व्यथा विदा लेने लगी,

तभी एक मुस्कुराती,अति प्रसन्न,छाया छवि मुझे स्नेह से निहारने लगी।

कहने लगी मैं खुशी हूं, तेरे जीवन में स्थिर निवास करने आती हूं,

बांहे फैला स्वागत कर मेरा, ये कह मन्द – मन्द मुस्कुराने लगी।

नैनों को अपनी राह बना वो हृदयास्तल पर ज्यौं विराजमान हुई,

पल – पल, प्रतिपल, उस पर वो अधरों से व्यक्त होने लगी।

मैंने कहा मैं धन्य हुई जो आज खुशी ने हृदय निवास किया,

दुख, संताप, व्यथा सब स्वत: अदृश्य होने लगी।

जब हृदय में ज्ञान की अमृतधारा ने प्रवाह किया,

तभी वही पवन का झोंका पुनः यूं दस्तक कर गया।

मानो तेरी जीवन की नई भोर हुई आकर वह मुझसे कह गया,

उस पर रवि रश्मि ने मेरे आंगन को यूं प्रकाशित किया,

मानू सूर्योदय अपने साथ मेरे जीवन में ज्ञानोदय कर गया।

 

 

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