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प्राकृतिक अनुराग

प्राकृतिक अनुराग

prakritik anurag, prakritik saundary ki kavita

ये कुदरत की सुन्दरता को देखकर , 

जी चाहता हैं इसे अपने शब्दों में सजों लूँ। 

प्राकृतिक सौन्दर्य को कह दूँ अलंकार ,

और बदलती पहर को मैं एक दुल्हन बना लूँ। 

सुबह आसमान में  प्यारी -सी  किरणें ,

हरे पत्तों में चमकते ओंस के मोती। 

कहीं दूर से सुनाई देती हैं चिड़ियों की चहचाहट ,

तो कहीं ठंडी हवा प्रकृति के तन को छूती। 

लहलहाती पवन लहराता आँचल ,

ओंस जैसे नग -जड़ित आभूषण। 

नदी,तालाबों में सूर्य की किरणें ,

मानों बना हो प्रकृति का दर्पण। 

धीरे -धीरे खिलती कलियाँ ,

हरियाली जैसे  कर रही हो श्रृंगार। 

चढ़ते दिन की सुन्दरता के साथ ,

हो गयी मानों प्रकृति रुपी दुल्हन तैयार। ,

लेकिन दिन भर की चहल -पहल से थकी ,

सुबह की दुल्हन हो गयी साँवरी साँझ। 

ढलते सूरज की लालिमा को  देखकर लग रहा हैं ,

साँवरी साँझ का आँचल बन गया हो नीला आकाश। 

सौन्दर्य से परिपूर्ण कोई दुल्हन जैसे ,

अपने  ख्वाबों की ओढ़नी ओढ़कर। 

धरती की सेज पर सहम कर हैं बैठी ,

हरियाली संग समर्पण का बिछौना बिछाकर। 

पर ज्यौं ही विधु ने आगमन  किया ,

चमक उठे  उसके सपने ओढ़नी से छिटक कर। 

जाकर आसमान में मानों ख्वाहिशें जगमगा उठी ,

चमक उठे हैं सारे तारे कैसे दूर गगन में बिखर कर। 

ढल कर अपने सांवरे के रंग में ,

साँझ हो गयी चाँद की चाँदनी। 

 दामन में भर कर चाँद -सितारे ,

महक उठी अंधकारमय रात्रि। 

 रंग खिल गया,रूप निखर गया ,

 रात बन गयी ख्वाबों की बारात। 

विधु के स्पर्श करते ही कण -कण ,

विधु की मुग्धा हो गयी रात। 

प्रातः से सांझ सुरम्य हुई, 

परिणय से पूर्ण  हो गयी रात। 

एक दूजे का परिणय स्वीकार कर समर्पित हुए ऐसे ,

खिल उठी मुस्कुराती -सी एक और नव -प्रभात। 

तभी कहते हैं शायद चाँद को देखो ,

दिल में सजा लो एक प्यारा -सा सपना। 

भर लो अपनी तन्हाइयों  में चाँदनी को  इस तरह ,

कि बोल उठे ख़ामोशी भी ,मैं भी तेरी और ये चाँद भी हैं तेरा अपना।

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