प्राकृतिक अनुराग

ये कुदरत की सुन्दरता को देखकर ,
जी चाहता हैं इसे अपने शब्दों में सजों लूँ।
प्राकृतिक सौन्दर्य को कह दूँ अलंकार ,
और बदलती पहर को मैं एक दुल्हन बना लूँ।
सुबह आसमान में प्यारी -सी किरणें ,
हरे पत्तों में चमकते ओंस के मोती।
कहीं दूर से सुनाई देती हैं चिड़ियों की चहचाहट ,
तो कहीं ठंडी हवा प्रकृति के तन को छूती।
लहलहाती पवन लहराता आँचल ,
ओंस जैसे नग -जड़ित आभूषण।
नदी,तालाबों में सूर्य की किरणें ,
मानों बना हो प्रकृति का दर्पण।
धीरे -धीरे खिलती कलियाँ ,
हरियाली जैसे कर रही हो श्रृंगार।
चढ़ते दिन की सुन्दरता के साथ ,
हो गयी मानों प्रकृति रुपी दुल्हन तैयार। ,
लेकिन दिन भर की चहल -पहल से थकी ,
सुबह की दुल्हन हो गयी साँवरी साँझ।
ढलते सूरज की लालिमा को देखकर लग रहा हैं ,
साँवरी साँझ का आँचल बन गया हो नीला आकाश।
सौन्दर्य से परिपूर्ण कोई दुल्हन जैसे ,
अपने ख्वाबों की ओढ़नी ओढ़कर।
धरती की सेज पर सहम कर हैं बैठी ,
हरियाली संग समर्पण का बिछौना बिछाकर।
पर ज्यौं ही विधु ने आगमन किया ,
चमक उठे उसके सपने ओढ़नी से छिटक कर।
जाकर आसमान में मानों ख्वाहिशें जगमगा उठी ,
चमक उठे हैं सारे तारे कैसे दूर गगन में बिखर कर।
ढल कर अपने सांवरे के रंग में ,
साँझ हो गयी चाँद की चाँदनी।
दामन में भर कर चाँद -सितारे ,
महक उठी अंधकारमय रात्रि।
रंग खिल गया,रूप निखर गया ,
रात बन गयी ख्वाबों की बारात।
विधु के स्पर्श करते ही कण -कण ,
विधु की मुग्धा हो गयी रात।
प्रातः से सांझ सुरम्य हुई,
परिणय से पूर्ण हो गयी रात।
एक दूजे का परिणय स्वीकार कर समर्पित हुए ऐसे ,
खिल उठी मुस्कुराती -सी एक और नव -प्रभात।
तभी कहते हैं शायद चाँद को देखो ,
दिल में सजा लो एक प्यारा -सा सपना।
भर लो अपनी तन्हाइयों में चाँदनी को इस तरह ,
कि बोल उठे ख़ामोशी भी ,मैं भी तेरी और ये चाँद भी हैं तेरा अपना।