हो रहा आगाज अब,
ऋतुराज बसंत का।
कोहरा छटता शनै: शनै:,
शीत के अंत का।
रंग घुलने लगा है,
शीतल हवाओं में।
संगीत सुनाई दे रहा है,
चॅंहु ओर फिजाओं में।
रवि रश्मि के स्पर्श से,
कलियां चटकने लगी।
पौ फटने के साथ ही,
चिड़िया चहकने लगी।
क्षितिज का वो किनारा,
अब दृश्यमान है,
खिल उठी है रश्मियाॅं,
पुलकित अंशुमान है।
नील गगन में श्वेत मेघ,
और दूर तलक हरियाली है।
उजली उषा स्फूर्तिमय,
श्यामल सांझ मतवाली है।
ओंस इठलाएं हरी घास पर,
पर्वत श्रेणी चमक रही है।
सृष्टि सजी-धजी यूं मानो,
सोने चांदी सी चमक रही है।
उन्माद, उल्लास, उमंग का,
दे रहा बसंत उपहार।
अंग – प्रत्यंग प्रफुल्लित कर रही,
मंद – मंद शीतल बयार।
पीली चोली, नीला आंचल,
सुंदर सुगंधित सुमन हार।
शीत से अलसाई सृष्टि का,
बसंत कर रहा श्रृंगार।
सुनो क्या कहता है बसंत
द्वार मन के खोल दो,
मेरे अनेक रंगों में,
कुछ रंग अपने घोल दो।
कह रहा कण-कण प्रकृति का,
मैं बहार खुशी की लाया हूॅं।
समेट खुद में ढंग जीवन के,
मैं बसंत बहार आया हूॅं।