कैसे दे दूं एक दिवस की, मैं अनंत बधाई तुमको। कैसे कहूं महिला दिवस की, हैं अशेष शुभकामना तुमको। नहीं चाहिए एक दिवस का, यह खोखला सम्मान हमें। नहीं चाहिए फूलों के भीतर, छिपा कांटों का हार हमें। जो खुद में ही सम्मानित है, उसे सम्मान की प्यास नहीं। और जो दर – दर, कण – कण बिखर रही, उसे किसी से आस नहीं। यह एक दिवस दो उसे नारी को, जो जाने कब से तरस रही। जिसकी आंखें बादल बनकर, जाने कब से बरस रही। जो पल-पल को विष की भांति, घूंट घूंट कर निगल रही। जो प्रतिदिन किसी मधुशाला की, हाला में हिम सी पिघल रही। जो कंधों पर पोथी नहीं, श्रमिक बोझ ले चल रही। वह स्त्री जो मां होकर भी, वृद्ध आश्रम में पल रही। स्त्री रूप को प्रस्तर पूज्य है, प्राण रूप क्यों मात्र भोग है। स्त्री स्त्री का शोषण कर रही, यह समाज का गहन रोग है। मैंने अक्सर देखा हैं, गुलदस्ता भारी बातों का। कौन व्याख्या करेगा आखिर, सिसकियां भरते जज्बातों का। कहीं-कहीं तो मंच सजे है, नारी के सम्मान में। कहीं चिंगारी सुलग रही है, स्त्रियों के अरमान में। गर्भ में पल्लवन होने से, मरणासन्न में सोने तक। कितनी बार बिखरती हैं नारी, कुछ पाकर खुद को खोने तक। बस अब बहुत हो गया, दृष्टिकोण बदलना होगा। एक दिवस से आगे बढ़कर, नव पृष्ठ लिखना होगा। खुद के लिए खुद ही हमको, आगे कदम बढ़ाना होगा। जमाना नहीं बदलने वाला, अब हमें खुद को बदलना होगा। मौन नहीं ललकार चाहिए, संदेश नहीं सत्कार चाहिए। चीत्कार नहीं हुंकार चाहिए, संधि नहीं यलगार चाहिए। शब्दों में टंकार चाहिए, बंदिश नहीं प्रतिकार चाहिए। हर स्वप्न हमें साकार चाहिए, दो शब्दों की तुकबंदी नहीं, स्त्री जीवन का सार चाहिए।
हेमा आर्या “शिल्पी”