नव दुर्गा की प्रथम स्वरूपा,
प्रथम रूप शैलपुत्री मां।
पर्वतराज हिमालय सुता,
कहलायी शैलपुत्री मां।
नवरात्रि के प्रथम दिवस में,
मां शैलपुत्री का पूजन होता हैं।
स्थिर कर चित्त मूलाधार चक्र में,
योग, साधना का आरंभ होता हैं।
पूर्व जन्म में शैलपुत्री माता,
प्रजापति दक्ष की पुत्री थी।
महादेव की अर्द्धांगिनी,
शिव प्रिया नाम सती थी।
एक दिवस प्रजापति दक्ष ने,
विशाल यज्ञ आयोजित किया।
बिसरा कर महादेव सती को,
सभी देवताओं को आमंत्रित किया।
जब सुना सती ने घर पिता के,
भव्य यज्ञ अनुष्ठान हैं।
कहा शिवजी से आज्ञा दो प्रभु,
मन पल पल करता परेशान है।
सुन प्रिया सती को शिव बोले,
हे प्रिये हमें आमंत्रित नहीं किया है। आमंत्रित हैं सभी देवतागण,
किंतु हमें सूचित भी नहीं किया है।
पिता तुम्हारे रुष्ट हैं हमसे,
यूं जाना श्रेयस्कर ना होगा,
अति बेकल है सती चित्त तुम्हारा,
तुम्हें मेरा कथन प्रबोध ना होगा।
मैं तुम्हें अनुमति देता हूं प्रिये,
अंतिम निर्णय तुम्हारा होगा।
यदि ना मिला मान तुम्हें वहां तो,
यह अपमान हमारा होगा।
ज्यों पिता घर पहुंची माता सती,
आदर, प्रेम का अभाव अनुभव किया। माता ने लगाया कंठ सस्नेह परंतु,
बहनों ने व्यंग्य, उपहास किया।
आत्मीय जनों के कटु व्यवहार से,
मां को गहरी ठेस लगी।
न जाने की सलाह प्रभु की,
अब माता को ठीक लगी।
अनुपस्थिति में त्रिलोकी नाथ की,
मन में तिरस्कार का भाव भरा।
दक्ष के अपमानजनक वचनों ने,
सती हिय में क्षोभ, क्रोध का भाव भरा।
महादेव की बात न मानी,
मैंने यह कैसा अपराध किया।
देवों के देव है स्वामी मेरे,
क्यों प्रभु का मेरे अपमान किया।
सह ना सकी यह धृष्टता दक्ष की,
योगाग्नि में स्वयं को भस्म किया। वज्रपात सम दारूण, दुखद घटना सुन,
क्रोधित शिव ने महायज्ञ का विध्वंश किया।
योगाग्नि भस्म सती ने तब,
पर्वतराज के घर जन्म लिया।
शैलपुत्री कहलाई माता सती,
हैमवती स्वरूप से देव गर्व भंजन किया।